Muhammad Saw ki 11 Bivian | Prophet Muhammad 11 Wives Story

दुनिया में मोहब्बत और रहमत की जो सबसे बुलंद तालीम इंसानियत को मिली है, वो हमारे प्यारे नबी हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैह वसल्लम की मुबारक जिंदगी से मिली है। उनकी जिंदगी का हर लम्हा हमारी रहनुमाई के लिए एक रोशन रास्ता है।क्या अपने कभी सोचा कि हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने 11 निकाह क्यों किए? हर निकाह के पीछे कौन सा इलाही पैगाम, कौन सा मकसद और कौन सी हिकमत छुपी थी जो पूरी उम्मत तक पहुंचनी थी। दोस्तों ये पूरा वाक़िआ मैने बड़ी मेहनत और मुहब्बत के साथ लिखा है। हर एक अल्फ़ाज़ मेरा अपना है और इसको लिखने में मुझे बहुत दिन लगे तो ज़रूर मुहब्बत के साथ दुरूद शरीफ लिखिएगा।

मक्का की सरज़मीन उस وقت के हालातों की गवाह थी। चारों तरफ जहालत, बुतपरस्ती और गुमराही का अंधेरा छाया हुआ था। औरतों को किसी क़ीमत की न समझा जाता, ग़रीबों को दबाया जाता, अमानत में खयानत आम थी, और तिजारत में झूठ और धोखाधड़ी रिवाज बन चुका था। लेकिन इन्हीं हालातों में एक चमकता हुआ सितारा लोगों के बीच अलग नज़र आता था — यह सितारा थे मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम। उनके اِخلاق, उनकी सच्चाई और उनकी अमानतदारी की गवाही पूरी मक्का देती थी। हर शख़्स उन्हें “अस्सादिक़” और “अल-अमीन” कहकर पुकारता।

मक्का की सबसे शरीफ़ और मालदार औरतों में से एक थीं خدیجہ بنتِ خُوَيلِد رزی اللہُ تالا عَنْهَا । उनका ख़ानदान क़ुरैश में बड़ा इज़्ज़तदार था। वो तिजारत करती थीं, कारवां शाम और यमन भेजती थीं, और लोग उन्हें “अत्ताहिरा” यानी पाकदामन कहा करते थे। خدیجہ بنتِ خُوَيلِد رزی اللہُ تالا عَنْهَا ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सच्चाई और अमानतदारी के चर्चे सुने थे। उन्होंने इरादा किया कि इस बार अपना माल उन्हीं के हवाले करेंगी।

उन्होंने अपने ग़ुलाम मयसरा को बुलाया और कहा, “मयसरा! इस बार मेरा माल मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह को दे दो। सफर में उनके साथ रहना और हर हालात देखना। लोग कहते हैं वो बेहद सच्चे हैं, मुझे भी देखना है।”

कारवां रवाना हुआ। मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हर लेन-देन में सच्चाई दिखाते रहे। अगर माल अच्छा होता तो कहते, “ये माल बेहतरीन है।” अगर किसी चीज़ में कमी होती तो साफ साफ बता देते। मयसरा को ये देख कर हैरत होती। वो सोचता, “कैसा ताजिर है जो झूठ नहीं बोलता, बल्कि खरीदार को नुक़सान तक बता देता है।”

सफर ख़त्म हुआ और कारवां इतना मुनाफा लेकर लौटा कि पहले कभी इतना न हुआ था। मयसरा ने सब कुछ बीबी خدیجہ को बताया। उसने कहा, “ऐ मलिका! मैंने मुहम्मद में वो बातें देखीं जो किसी और में न देखीं। जब वो درخت के नीचे बैठे, तो मुझे याद आया कि यहूदियों से सुना था कि इस درخت के नीचे सिर्फ نبی बैठते है। मैंने हर लम्हा महसूस किया कि उनके साथ रहमत है।”

ये सुनकर बीबी خدیجہ का दिल बदल गया। उन्होंने महसूस किया कि ये नौजवान आम लोगों से अलग है। उनकी ज़िंदगी का सहारा वही बन सकते हैं। लेकिन वो खुद सीधे सामने बात न कर सकती थीं। उन्होंने अपनी सहेली नफीसा बिन्ते मुनय्या को भेजा।

नफीसा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आईं। उन्होंने अदब से कहा, “ऐ मुहम्मद, आप निकाह क्यों नहीं कर लेते?” आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया, “मेरे पास इतना माल कहां कि मैं निकाह करूं?” नफीसा ने कहा, “अगर मैं आपको ऐसी औरत बताऊं जो शरीफ ख़ानदान से है, मालदार है, हसीन है और आपको पसंद करती है, तो क्या आप منزور करेंगे?” आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पूछा, “कौन?” नफीसा ने कहा, “خدیجہ بنت خُوَيلِد।”

ये नाम सुनते ही मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सर झुका लिया। फिर मुस्कुराकर फरमाया, “अगर वो मुझे منزور करें, तो मुझे भी منزور है।”

कुछ ही दिन बाद दोनों ख़ानदान मिले। हज़रत अबू तालिब ने निकाह का خُطبَہ  पढ़ा। उन्होंने कहा, “सारी हम्द उस अल्लाह के लिए है जिसने हमें इब्राहीम की औलाद बनाया, इस्माईल की नस्ल बनाया और हरम का خادم बनाया। ये मेरे भतीजे मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह हैं, जिनसे बढ़कर कोई नौजवान इज़्ज़त और अमानत में नहीं। मैं अपने भतीजे का निकाह خدیجہ بنت خُوَيلِد से करता हूँ।

निकाह के وقت मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पच्चीस साल के थे और बीबी خدیجہ चालीस साल की। लेकिन ये रिश्ता सिर्फ उम्र का न था, बल्कि दो पाक दामन और सच्चे दिलों का मिलन था।शादी के बाद बीबी خدیجہ ने अपना सारा माल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर निछावर कर दिया। उन्होंने कहा, “ऐ अबुल قاسم! ये सब माल आपका है। मैं आपकी हूं।” और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी अपनी पूरी ज़िंदगी एक वफादार शौहर की तरह गुज़ारी। बीबी خدیجہ के रहते आपने किसी और से निकाह नहीं किया।घर की ज़िंदगी में सुकून था। मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अक्सर غارے हिरा जाते, तन्हाई में बैठकर अल्लाह को याद करते। 

दूसरी तरफ मक्का वाले अब भी बुत परस्ती में लगे हुए थे।बुतों ने आज तक लोगों को कुछ भी न दिया था।मगर औरतें बुतों पर चढ़ावा चढ़ातीं और अपने दिल की मुराद कहतीं, लेकिन बुत अब भी ख़ामोश थे।


निकाह के बाद मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और हज़रत خدیجہ  की ज़िंदगी एक सुकून भरी जन्नत बन गई। इस रिश्ते की बुनियाद मोहब्बत, भरोसे और ईमानदारी पर रखी गई थी। نبی पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम घर में एक वफादार, नर्मदिल और خُلوص से भरे शौहर साबित हुए, और बीबी خدیجہ एक ऐसी बीवी बनीं, जिन्होंने अपना सब कुछ अपने शौहर पर قُربان कर दिया। इस घर की रौनक बच्चों की पैदाइश से और बढ़ी।

अल्लाह ने इस मुबारक जोड़े को कई औलादें अता कीं। सबसे पहले बेटा قاسم पैदा हुए। इसी वजह से हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की कुनीयत “अबुल قَاسِم” पड़ी। हज़रत قَاسِم की पैदाइश ने घर को रौशन कर दिया। मक्का में जब कोई बेटे का बाप बनता तो उसे فقر होता। लेकिन मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ये बेटा बचपन ही में इंतिक़ाल कर गया। ये एक बड़ा इम्तिहान था। मगर इस मुसीबत में भी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और बीबी خدیجہ सब्र पर क़ायम रहे।

इसके बाद अल्लाह ने एक-एक कर के बेटियां अता कीं। सबसे पहले बीबी ज़ैनब पैदा हुईं। फिर बीबी रुक़य्या, फिर बीबी उम्मे कुलसूम और फिर सबसे छोटी बेटी बीबी फातिमा। हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपनी बेटियों को बहुत प्यार करते। मक्का के उस दौर में बेटियां पैदा होना नफरत की नज़र से देखा जाता था। लोग तो अपनी बेटियों को ज़िंदा दफन कर देते। लेकिन प्यारे نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हर बेटी की पैदाइश पर ख़ुशी मनाते और कहते, “ये तो रहमत है।”

जब बच्चियां चलना शुरू करती, तो प्यारे نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम घर में खेलते, उन्हें गोदी में उठाते, और हंसाते।बीबी خدیجہ उन्हें देखतीं तो उनकी आँखें खुशी से भर जातीं। वो अक्सर कहतीं, “ऐ अबुल قَاسِم! आपकी औलाद आपके नूर का हिस्सा है।”

फिर आया वो मुबारक दिन जब घर में चौथी बेटी पैदा हुईं, जिन्हें सारी उम्मत “सय्यिदा निसाउल आलमीन” के नाम से जानती है। ये थीं फातिमा बिन्ते मुहम्मद رزی اللہُ تالا عَنْهَا , उनकी पैदाइश सरकार सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और बीबी خدیجہ के लिए बड़ी रहमत बनी।

हज़रत फातिमा की पैदाइश उस وقت हुई जब क़ुरैश हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के خِلاف साज़िशें करने लगे थे। मक्का के लोग आपको झूठा और जादूगर कहते थे, नाउज़ुबिल्लाह। लेकिन घर आते ही छोटी फ़ातिमा आपको गले लगातीं, आपके होंठों पर मुस्कान बिखेर देतीं। हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उन्हें देखते और कहते, “फातिमा मेरे जिगर का टुकड़ा है।”

मक्का के लोग अक्सर बेटियों की तौहीन करते, लेकिन प्यारे نبی बेटियों को इज़्ज़त देते। जब भी फातिमा घर आतीं तो نبی पाक उठकर खड़े हो जाते, उनके हाथ पकड़कर उन्हें अपने पास बैठा लेते। एक दिन एक आदमी ने कहा, “मुहम्मद! तुम अपनी बेटी के लिए खड़े हो जाते हो?” हुज़ूर ने फरमाया, “हां, वो मेरे दिल का हिस्सा है।”

बीबी  خدیجہ अपनी बेटियों की परवरिश में बहुत ध्यान देतीं। वो उन्हें सिखातीं कि सच बोलना, मेहमान की इज़्ज़त करना, और गरीब का सहारा बनना, अल्लाह को कितना पसंद है। उनके घर का माहौल ऐसा था कि बच्चियां भी अपनी मासूम उम्र में सब्र और शुक्र का سبق सीख जातीं।

बीबी फातिमा رزی اللہُ تالا عَنْهَا बचपन ही से मां से लिपटी रहतीं। अक्सर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम غارے हिरा जाते, तो घर में छोटी-छोटी बच्चियां मां के साथ रहतीं। उस وقت خدیجہ उन्हें समझातीं कि “तुम्हारे अब्बा अल्लाह को याद करने गए हैं।” धीरे-धीरे ये बातें बीबी फातिमा के दिल में उतर गईं। यही वजह थी कि वो छोटी उम्र से ही हुज़ूर पाक की मुश्किलों में उनका सहारा बनने लगीं।

एक बार का वाक़िआ है कि نبی पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मक्का की गली से गुज़र रहे थे। कुछ क़ुरैशियों ने आपके ऊपर ऊंट की ओझड़ी डाल दी। आप घर आए तो छोटे-छोटे हाथों से बीबी फातिमा ने आपके कपड़े साफ किए। उनकी आँखों में आँसू थे। उन्होंने कहा, “अब्बा जान, ये लोग आपके साथ ऐसा क्यों करते हैं?” نبی पाक ने उनकी पेशानी चूमी और कहा, “मेरी बच्ची, अल्लाह मेरे साथ है।”

बच्चों की पैदाइश ने इस घर को और रोशन कर दिया। लेकिन साथ ही ये घर सब्र का भी मरकज़ बन गया। बेटे क़ासिम के बाद फिर एक बेटे अब्दुल्लाह पैदा हुए। लोग उन्हें “तैय्यब” और “ताहिर” भी कहते। लेकिन वो भी बचपन ही में चल बसे। इस पर क़ुरैश ताना देते कि “मुहम्मद की नस्ल ختم हो जाएगी।” मगर अल्लाह ने वहीँ से ये पैग़ाम दिया: इन्ना आतैनाकल कौसर। यानी “ऐ نبی, हमने आपको बहुत कुछ दिया है,आप कौसर के भी मालिक हैं।और सचमुच, उनकी बेटियों में से बीबी फातिमा की नस्ल से, आज पूरी उम्मत में نبی पाक की औलाद मौजूद है।


इस तरह نبی पाक और ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा की शादीशुदा ज़िंदगी न सिर्फ़ मोहब्बत और वफ़ादारी का नमूना बनी, बल्कि उनकी औलाद ने भी उम्मत की तालीम और तरबियत में बहुत बड़ा किरदार अदा किया।

मक्का की रातें अक्सर सुकून से भरी होतीं, लेकिन हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का दिल बेचैन रहता। वो देखते कि लोग बुतों को पूजते हैं, औरतों को ज़िंदा दफ्न कर देते हैं, अमानत में خیانت करते हैं, और शराब और जुए में डूबे रहते हैं। ये सब देखकर उनका दिल तड़प उठता। वो अक्सर कहते, “ये कैसी ज़िंदगी है? अल्लाह ने इंसान को इज़्ज़त दी, लेकिन इंसान खुद अपनी इज़्ज़त खो बैठा।”

इसी बेचैनी की वजह से वो मक्का के शोर-गुल से दूर जाकर غارے हिरा में तन्हा बैठते। ये जगह पहाड़ों के बीच थी, जहां सिर्फ चुप्पी और तन्हाई होती। वहां वो दिन रात अल्लाह की याद में मशग़ूल रहते। कई-कई रातें वहीं गुज़र जातीं। हज़रत خدیجہ उनके लिए खाना-पानी तैयार करके भेजतीं। वो पूछतीं, “ऐ अबुल क़ासिम, कब तक आप इस तन्हाई में रहेंगे?” हुज़ूर मुस्कुराकर कहते, “خدیجہ, मेरा दिल तलाश करता है। मैं उस خَالِق को ढूंढ रहा हूं। जिसने हमें पैदा किया। यक़ीनन कोई حق है जो इस जहालत से अलग है।”एक ऐसी ही रात, رمزان का महीना था। नबी पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम غار हिरा में बैठे अल्लाह को याद कर रहे थे, कि अचानक नूरानी शक्ल वाला एक फरिश्ता सामने आया। ये हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम थे। उन्होंने कहा: इक़रा!

نبی पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम काँप गए। उन्होंने कहा, “मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। यानी मैंने किताबी इल्म हासिल नहीं किया।

जिब्रील अलैहिस्सलाम ने फिर उन्हें सीने से लगाया और कहा:

— “इक़रा!”

نبی पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फिर वही दोहराया।

तीसरी बार जिब्रील ने गले लगाया, और फिर ये आयत उतारी:

اِقْرَأْ بِاسْمِ رَبِّكَ الَّذِي خَلَقَۚ । خَلَقَ الْإِنسَانَ مِنْ عَلَقٍۚ ।اقْرَأْ وَرَبُّكَ الْأَكْرَمُۙ ।

तर्जुमा, पढ़ो अपने उस रब के नाम से जिसने पैदा किया। जिसने इंसान को जमे हुए ख़ून से पैदा किया। पढ़ो, और तुम्हारा रब बड़ा करम वाला है।)

نبی पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम काँप उठे। उनकी पेशानी पर पसीना था। उनका दिल तेज़ धड़क रहा था। वो غار से निकले और सीधा घर की तरफ आए।

दरवाज़ा खटखटाते ही बीबी خدیجہ ने देखा कि उनके शौहर कांप रहे हैं। उन्होंने घबराकर कहा, “या रसूलल्लाह, ये क्या हुआ?”

नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कहा, “मुझे चादर ओढ़ाओ, मुझे चादर ओढ़ाओ।” उन्होंने काँपते हुए अपना वाक़िआ सुनाया, “خدیجہ! मैं غار में था कि अचानक एक नूरानी شخص आया और मुझसे पढ़ने को कहा। उसने मुझे तीन बार गले लगाया और फिर अल्लाह का कलाम सुनाया। मुझे डर है, पता नहीं मेरे साथ क्या होगा।”



خدیجہ ने उनके हाथ थाम लिए। उन्होंने कहा: हरगिज़ नहीं, अल्लाह आपको रुस्वा नहीं करेगा। आप रिश्ते निभाते हैं, सच्चाई बोलते हैं, कमज़ोरों का सहारा बनते हैं, मेहमानों की मेज़बानी करते हैं, और मुश्किल में लोगों की मदद करते हैं। अल्लाह ऐसा नेक इंसान कभी زایا नहीं करता।”

उनकी बातें नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दिल को सुकून देने लगीं। फिर خدیجہ ने कहा, “ऐ अबुल क़ासिम, आओ, मैं आपको अपने चचेरे भाई ورقہ बिन नऊफल के पास ले चलती हूँ। वो किताबों के आलिम हैं। शायद वो समझा सकें।”

दोनों ورقہ बिन नऊफल के पास गए। ورقہ बूढ़े और नज़र कमज़ोर हो चुकी थी। बीबी خدیجہ

 ने कहा, “भाई, ये मेरे शौहर मुहम्मद हैं। इन्हें  غار

हिरा में अजीब वाक़िआ पेश आया है।”

हुज़ूर ने पूरा वाक़िआ सुनाया। ورقہ की आँखों से आँसू बहने लगे। उन्होंने कहा:

— “قسم उस زات की जिसने मूसा को नबूवत दी, यह वही फरिश्ता है जो अल्लाह के नबियों के पास आता है। आप इस उम्मत के नबी बनाए गए हैं। लेकिन सुन लीजिए, आपकी قوم आपको झुठलाएगी, आपको निकाल देगी, आप पर ज़ुल्म करेगी। काश, उस وقت मैं जवान होता, तो आपकी मदद करता।”

ये सुनकर نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का दिल और भी भारी हो गया, लेकिन बीबी خدیجہ का یقین और मज़बूत हुआ। वो कहने लगीं, “मैं गवाही देती हूँ कि आप अल्लाह के रसूल हैं। मैं आपके नेक مقسد में आपके साथ हूँ।”

यही वो लम्हा था जब हज़रत خدیجہ ने सबसे पहले इस्लाम قُبول किया। वो इस्लाम की पहली मोमिना बनीं। उनके बाद बच्चों में सबसे पहले हज़रत अली बिन अबी तालिब رزی اللہُ تالا عَنْهُ, और ग़ुलामों में ज़ैद बिन हारिसा رزی اللہُ تالا عَنْهُ मुसलमान हुए।

अब प्यारे نبی के लिए घर सिर्फ़ आराम की जगह न रहा, बल्कि उनके مقسد का पहला مرکز बन गया। जब भी نبی पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर बाहर कोई बोझ पड़ता, घर आकर उन्हें बीबी خدیجہ का सहारा मिलता। वो कहतीं, “ऐ अल्लाह के نبی, आप अपने रास्ते पर قائم रहिए, मैं हर قدم पर आपके साथ हूँ।”

अक्सर रातों में نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इबादत में مشغول होते और बीबी خدیجہ उनकी तरफ देखतीं। उनके दिल से यही दुआ निकलती, “ऐ अल्लाह, मेरे शौहर को तौफीक़ दे, मैं इनका साथ निभाने वाली बनी रहूँ।”

इस तरह इस्लाम का पहला घर, पहला ईमान और पहली मोहब्बत का सहारा नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को हज़रत خدیجہ की शक्ल में मिला। ये वाक़िआ न सिर्फ़ नबूवत की शुरुआत थी, बल्कि इस बात का ऐलान था कि औरत भी इस्लाम की बुनियाद रखने में बराबर का हिस्सा रखती है।



### 🌸 दूसरी शादी : 

हज़रत خدیجہ رزی اللہُ تالا عَنْهَا की वफात के बाद हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़िंदगी में एक गहरी तन्हाई उतर आई थी। घर का हर कोना सूना लगने लगा। बीबी خدیجہ की मुहब्बत, उनकी तसल्ली देने वाली बातें और उनका वफादार साथ अब मौजूद न था। हुज़ूर पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब घर आते तो बच्चियों की आँखों में भी उदासी दिखती। छोटी-सी बीबी फातिमा अपने वालिद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आँसू पोंछतीं और कहतीं:

“अब्बा जान, अम्मी कहां चली गईं?”

نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उनकी मासूम बात सुनकर उन्हें सीने से लगा लेते, लेकिन खुद आँसुओं को रोक न पाते।

ये वो وقت था जब نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर बाहर से भी क़ुरैश का ज़ुल्म और ताना-बानी जारी थी और घर के अंदर का सुकून भी टूट चुका था। ऐसे हालात में घर को संभालने और बच्चियों की परवरिश के लिए एक मददगार की ज़रूरत महसूस हुई।

इन्हीं दिनों एक नेक और बुज़ुर्ग सहाबिया थीं — सौदा बिन्ते ज़म’आ رزی اللہُ تالا عَنْهَا। उनका पहले निकाह سقران बिन अम्र से हुआ था। दोनों ने इस्लाम قُبول किया और हिजरते हबशा यानी हबशा की तरफ हिजरत में शरीक हुए। लेकिन हबशा से लौटने के बाद سقران बिन अम्र बीमार पड़ गए और कुछ ही दिनों में उनका इंतिक़ाल हो गया।

सौदा رزی اللہُ تالا عَنْهَا अब एक बेवा थीं। उम्र में भी चालीस के करीब थीं, और उनका कोई सहारा न था। उस وقت अरब के समाज में बेवा औरत को बहुत मुश्किलें झेलनी पड़ती थीं। रिश्तेदारों और लोगों की निगाहें ताने देतीं और उसे बेकार समझा जाता।

एक दिन خَوَّالَهَ बिन्ते हकीम जो हज़रत उस्मान बिन मज़ऊन رزی اللہُ تالا عَنْهَا की زوجہ थीं , प्यारे نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आईं। उन्होंने देखा कि نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ग़मगीन और तन्हा बैठे हैं। उन्होंने अदब से कहा:

“या रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, हज़रत خدیجہ तो अब अल्लाह के घर पहुंच चुकी हैं। हम सब जानते हैं कि वो आपके लिए कैसी थीं। लेकिन अल्लाह ने फरमाया है कि मुश्किल के बाद आसानी है। आप चाहें तो मैं आपके लिए निकाह का इंतज़ाम करूँ?”

नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:

“خَوَّالَهَ, किससे?”

خَوَّالَهَ ने कहा: अगर आप चाहें तो एक कुंवारी है और एक सय्यिबा (यानी पहले शादीशुदा)। कुंवारी हज़रत अबू बकर की बेटी आयशा हैं। और सय्यिबा सौदा बिन्ते ज़म’आ।”

نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पूछा: خَوَّالَهَ, सौदा कैसी हैं?”

خَوَّالَهَ ने कहा:

“या रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, वो ईमानदार हैं, सच्ची हैं और इस्लाम के लिए तकलीफ़ें उठा चुकी हैं। वो आपकी बच्चियों का भी خیال रख सकती हैं।”

نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:

“तो पहले सौदा से बात करो।”

خَوَّالَهَ सौदा बिन्ते ज़म’आ के पास गईं। उन्होंने अदब से कहा:

“ऐ सौदा, तुम्हें पता है कि अल्लाह ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपनी नबूवत से नवाज़ा है। उनकी बीवी خدیجہ का इंतिक़ाल हो गया है। अब वह तन्हा हैं। क्या तुम्हें अच्छा लगेगा कि अल्लाह तुम्हें उनके घर की सरबराह बना दे?”

सौदा की आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने कहा:

“خَوَّالَهَ! ये कैसी बात करती हो? ये तो अल्लाह का बड़ा करम होगा। मैं ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हूँ।”

خَوَّالَهَ फौरन नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास लौटीं और कहा:

“या रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, सौदा तैयार हैं।

कुछ ही दिनों बाद सौदा رزی اللہُ تالا عَنْهَا और नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का निकाह हुआ। ये निकाह रमज़ान के महीने में, नबूवत के दसवें साल मक्का मुक़र्रमा में हुआ। निकाह अबू तालिब की वफात और हज़रत خدیجہ की वफात के ग़मगीन दिनों के बाद हुआ था।

निकाह का मंज़र सादा था, लेकिन दिलों में ख़ुशियां थीं।


सौदा رزی اللہُ تالا عَنْهَا का घर में आना نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और बच्चियों के लिए एक बड़ी रहमत बन गया। वो बड़ी उम्र की थीं, लेकिन उनका दिल बहुत नरम और मोहब्बत से भरा था।

वो बच्चियों को अपने बच्चों की तरह संभालतीं। जब बीबी फातिमा रोतीं, तो कहतीं:

“आओ बेटी, तुम्हें मैं झुलाऊं। उनके आंसू पोछतीं, उन्हें सीने से लगातीं।

रात के وقت जब نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम नमाज़ में खड़े होते, तो सौदा उनकी चादर सँवार देतीं और कहतीं:

“या रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, आप बेफिक्र होकर इबादत कीजिए, घर की फिक्र मुझे रहने दीजिए।”

نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उनके इस एहसास से मुतास्सिर होते और अक्सर कहते:

“सौदा, तुमने मेरे घर को फिर से ज़िंदा कर दिया।”

दूसरी तरफ क़ुरैश को نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का हर قدم नागवार गुजरता था। उन्होंने सोचा कि “मुहम्मद ने फिर शादी कर ली, लगता है उनके हौसले बुलंद हैं।” वे ताने कसते और कहते:

“देखो, उनके हालात इतने ख़राब हैं फिर भी निकाह कर लिया।”

लेकिन نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इन सब बातों पर तवज्जो न देते। उनका مقسد अपने घर को सँभालना था, और सौदा رزی اللہُ تالا عَنْهَا का आना इस مقسد के लिए रहमत था।

सौदा رزی اللہُ تالا عَنْهَا बुज़ुर्ग थीं, लेकिन उनका ईमान बहुत मज़बूत था। वो अक्सर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कहतीं:

“या रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, मैंने इस्लाम को अपनी आँखों की ठंडक बना लिया है। अगर लोग مزاق उड़ाते हैं तो उड़ाने दीजिए, अगर लोग زُلم करते हैं तो करने दीजिए। मैं अल्लाह की राह में हर तकलीफ सहूँगी।”

نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उन्हें देखकर मुस्कुराते और कहते:

“सौदा, अल्लाह तुम्हारे सब्र को देख रहा है और तुम्हें इनाम देगा।”

सौदा رزی اللہُ تالا عَنْهَا का مِجَاز हँसमुख भी था। वो कभी-कभी बातें करके नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को हँसा देतीं। एक बार उन्होंने نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कहा:

“या रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, मैं नमाज़ में आपके साथ खड़ी होती हूँ तो डर लगता है कि कहीं मेरा भारी जिस्म गिर न जाए और आप परेशान हो जाएं।”

हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मुस्कुरा दिए और बोले:

“सौदा, अल्लाह ने तुम्हें अच्छा दिल दिया है, और दिल का وزن ही असल है।”

हज़रत सौदा बिन्ते ज़म’आ رزی اللہُ تالا عَنْهَا का निकाह इस बात की दलील है कि इस्लाम ने बेवाओं और बड़ी उम्र की औरतों को इज़्ज़त और सहारा दिया। हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक कम उम्र लड़की से नहीं, बल्कि बड़ी उम्र की, बेवा औरत से निकाह किया ताकि उनका सहारा बनें और अपने घर को सँभालें।

उनकी ज़िंदगी ने ये भी साबित किया कि उम्मुल-मोमिनीन होना सिर्फ हुस्न और जवानी की वजह से नहीं, बल्कि ईमान, सब्र और वफादारी की वजह से है।

तीसरा निकाह


मक्का मुकर्रमा का वो दौर, जब क़ुरैश की सियासत, तिजारत और उनकी शानओ शौकत पूरे अरब में मशहूर थी। हर क़बीला अपने नसब और दौलत पर इतराता था। लेकिन उसी समाज में एक ऐसा शख़्स भी मौजूद था, जिसे न तो दौलत से और न ही सियासत से कोई फर्क पड़ता था। और वो थे  मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम। लोग उन्हें "अस्सादिक" और "अलअमीन" कहते थे। उनकी सच्चाई और अमानतदारी इतनी मशहूर थी कि पूरा मक्का उन पर यक़ीन करता था।

दूसरी तरफ, नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सबसे क़रीबी और सच्चे दोस्त, सहाराए दीन, अबू बकर سِدِّيق رزی اللہُ تالا عَنْهُ थे। आप का مقام इस्लाम से पहले ही इतना ऊँचा था कि लोग उन्हें सच्चाई, मुलायमत और शराफत के लिए जानते थे। इन्हीं के घर की एक बेटी थीं — आयशा बिन्त अबी बकर । वो नूरानी चेहरे वाली, बचपन से ही زِهْن की रोशन थीं। अल्लाह तआला ने उनके नसीब में वो مقام लिखा था, जो किसी और औरत को हासिल न हुआ: "उम्मुल मोमिनीन" का दरजा।

उस ज़माने की शादियों का तसव्वुर आज की सोच से बहुत अलग था। आज हम उम्र और तारीख़ को देखते हैं, लेकिन उस दौर में शादी का मापदंड सिर्फ़ एक था: सयानी होना यानी بَالِغ होना।

अरब के سخت मौसम, तेज़ हवाओं और बदन की जल्दी नुमू की वजह से लड़कियां बहुत कम उम्र में सयानी हो जाती थीं। दस-बारह साल की उम्र में ही वो घर संभालने और शादी के काबिल समझी जाती थीं। सिर्फ अरब ही नहीं, बल्कि रोम, ईरान, हिंद और यहूद में भी यही रिवायत थी، कि लड़की सयानी होते ही उसकी शादी कर दी जाती। उस وقت किसी ने भी इसे अजीब या ग़ैर मामूली नहीं समझा।

इसलिए जब बाद के ज़माने में कुछ लोग हज़रत आयशा की शादी पर एतराज़ करने लगे, तो ये दरअसल अपनी सोच को उस दौर पर थोपने की कोशिश थी। उस وقت उम्र कोई मायने नहीं रखती थी, बल्कि सयानापन और بَالِغ होना मायने रखता था।

एक दिन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और हज़रत अबू बकर رزی اللہُ تالا عَنْهُ के दरमियान एक अहम گُفْتُگُو हुई। हज़रत अबू बकर سِدِّيق ने अदब से अर्ज़ किया:

या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम! मेरी बेटियों में आयशा है, वो सयानी हो रही है, इल्म और हया में आगे है। अगर आप चाहें तो मैं आपकी खिदमत में ये पेशकश रखूँ।”

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मुस्कुराए। आपकी आँखों में मोहब्बत और रहमत की चमक थी।


रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: “ऐ سِدِّيق! तुम्हारी बेटी आयशा पाकीज़गी और इल्म में बेमिसाल है। अल्लाह तआला ने मेरे दिल में भी उसके लिए मोहब्बत डाली है। अगर अल्लाह को मंज़ूर हो तो ये निकाह मुबारक होगा।”

अबू बकर رزی اللہُ تالا عَنْهُ. की आँखों में खुशी के आँसू आ गए। वो जानते थे कि ये रिश्ता مہز बाप और बेटी का मामला नहीं, बल्कि इस्लाम की तामीर और उम्मत की रहनुमाई का हिस्सा है।

जब सहाबाकिराम को ये पैग़ाम मालूम हुआ, तो उन्होंने इसे अल्लाह का فزل समझा। हज़रत उमर رزی اللہُ تالا عَنْهُ. ने फरमाया:ये तो अल्लाह की रहमत है कि سِدِّيق की बेटी نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के घर जाएं। इससे उम्मत को इल्म और बरकत मिलेगी।

हज़रत आयशा خُد भी अपनी कमसिनी में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की इज़्ज़त और मोहब्बत को महसूस करती थीं। एक दिन उन्होंने अपनी मां उम्मे रुमान से मासूम अंदाज़ में पूछा:

अम्मा, क्या वाक़ई अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मुझसे निकाह करेंगे?”

उम्मे रुमान ने जवाब दिया:“हाँ बेटा, ये अल्लाह की مرزی है। तुम्हें तो فقر करना चाहिए कि तुम्हारा घर उम्मत के نبی का घर बनेगा।

हज़रत आयशा رزی اللہُ تالا عَنْهَا हल्की सी मुस्कुरा दीं, लेकिन उनके दिल में मोहब्बत और एहतराम की लहर दौड़ गई।

निकाह सादगी से हुआ। نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने خُد फरमाया था:सबसे मुबारक निकाह वो है जिसमें सबसे कम خَرْچ हो।

हज़रत अबू बकर ने बेहद सादगी के साथ निकाह अदा किया। कोई दिखावा नहीं, कोई शानओ शौकत नहीं। सहाबा गवाह बने और अल्लाह का नाम लेकर ये रिश्ता मुकम्मल हुआ।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:ऐ سِدِّيق, ये निकाह सिर्फ़ दो घरों को नहीं, बल्कि उम्मत के लिए इल्म और रहनुमाई का दरवाज़ा खोलेगा। असल में ये निकाह रूहानी और इलाही مقسد का हिस्सा था।


मक्का की سرزمین पर इस्लाम की रोशनी फैल चुकी थी, लेकिन साथ ही क़ुरैश का जुल्म और दुश्मनी भी बढ़ती जा रही थी। मुसलमानों पर तरह-तरह के ताने, सज़ाएं और तहर्रीम की सियासत जारी थी। सहाबा अब तंग आ चुके थे। और بی अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अल्लाह पाक के हुक्म का इंतज़ार कर रहे थे।

इसी बीच अल्लाह तआला की तरफ से हुक्म आया कि अब मदीना की तरफ हिजरत करनी है।

हिजरत सिर्फ एक सफर नहीं था, बल्कि ये इस्लाम की تاریخ में एक नया मोड़ था। मक्का से निकलकर मदीना पहुँचना यानी दीन की नींव को मज़बूत करना, उम्मत को नया घर देना और इस्लाम को क़ौमी पहचान अता करना।

हिजरत का ऐलान हुआ तो हज़रत अबू बकर سِدِّيق رزی اللہُ تالا عَنْهُ का दिल बेचैन हो गया। वो चाहते थे कि ये सफर उन्हें अपने प्यारे दोस्त, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम  के साथ करने का मौका मिले।

एक दिन उन्होंने अदब से ارز किया:

या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! मुझे भी अपने सफर में शामिल कर लीजिए।”

हुज़ूर ने मुस्कुराकर फरमाया:

ऐ سِدِّيق, तुम मेरे सफरे हिजरत के साथी होगे।

ये सुनकर हज़रत अबू बकर سِدِّيق की आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने कहा:

ऐ अल्लाह के रसूल , मेरे नज़दीक इससे बढ़कर कोई इनाम नहीं कि मैं आपके साथ सफर करूँ।

हिजरत का सफर आसान नहीं था। مُشْرِكِينِ

 मक्का ने आपके घर का घेराव कर लिया था और قتل का इरादा बना लिया था, लेकिन अल्लाह की मदद से आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उन सबकी आँखों के सामने से निकल गए और वो देख न सके। वो चाहते थे कि किसी तरह इस्लाम की ये रोशनी बुझा दें। मगर अल्लाह तआला का वादा था कि , अल्लाह अपनी रोशनी को पूरा करके रहेगा, चाहे काफिर नापसंद करें।रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और हज़रत अबू बकर غارے सौर पहुँचे और दोनों वहीं छिप गए।

غار 

 में हज़रत अबू बकर घबराए हुए थे कि कहीं दुश्मन हमें देख न ले। उन्होंने कहा: या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम , अगर ये लोग अपने पांवों की तरफ झांक लें तो हमें देख लेंगे।

हुज़ूर ने फरमाया: ऐ سِدِّيق! غم न कर, अल्लाह हमारे साथ है। 

इस तसल्ल्ली से हज़रत अबू बकर का दिल मज़बूत हो गया।

मक्के के दुश्मन तलवारें और भाले लेकर आपके पीछे-पीछे आ गए। वो غار तक आ पहुँचे और दरवाज़े तक देख भी लिया। उस وقت अल्लाह तआला ने अपनी قُدرت से दो करामात زاہر कीं: 

उसी وقت एक मकड़ी ने غار के मुंह पर जाला बुन दिया। और दूसरी की एक कबूतर ने वहीं घोंसला बना दिया और अंडे दे दिए।अब जब مُشْرِكِين غار के पास पहुँचे तो कहने लगे:

“अगर कोई अंदर गया होता तो यह जाला टूटा हुआ होता और ये कबूतर यहां न होता।”

इस तरह अल्लाह तआला ने अपने हबीब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपनी रहमत से محفوز  रखा।

آخرکار

 सफर मुकम्मल हुआ और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और हज़रत अबू बकर मदीना पहुँचे। मदीना की गलियां तक़बीर और अल्लाहु अकबर की आवाज़ों से गूंज उठीं। बच्चे, औरतें, मर्द सब आपके اِسْتِقْبَال के लिए निकले। मदीना की बच्चियों ने डफ बजा बजा के हुज़ूर पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आमद का زِکر कुछ यूं किया,

طَلَعَ البَدْرُ عَلَيْنَا ، مِن ثَنِيَّاتِ الوَدَاعِ،

وَجَبَ الشُّكْرُ عَلَيْنَا ،مَا دَعَا لِلَّهِ دَاعٍ,

 तभी से आज तक हुज़ूर पाक के चाहने वाले माहे रबीउलअव्वल में हुज़ूर की आमद का زِکر करते हैं, और ये सबसे बड़ी दलील है,की हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इसको बहुत मुहब्बत से قُبول फरमाया। सुभानअल्लाह 



ये मदीना के लिए सबसे बड़ी खुशख़बरी थी। अब نبی पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का नया घर यहीं होगा, और इसी जगह उम्मत की तामीर शुरू होगी।

अब وقت आया कि हज़रत आयशा को نبی पाक के घर लाया जाए। यानी निकाह के تقریبن तीन साल तक उनकी رُخْصَتِي नहीं हुई थी, उस وقت तक वो सयानी हो चुकी थीं और मदीना की तालीमात और माहौल में इस्लाम की नूरानी परवरिश पा चुकी थीं।

उनकी मां उम्मे रुमान ने प्यार से कहा: बेटी, अल्लाह ने तुम्हें उम्मुल मोमिनीन बनने का शरफ بخشا है। तुम्हें अब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के घर जाना है।

बीबी आयशा हल्की सी शरमा गईं और मासूम अंदाज़ में बोलीं: अम्मी, क्या मैं इस ज़िम्मेदारी को उठा पाऊँगी?

उम्मे रुमान ने जवाब दिया: बेटी, अल्लाह जिसको चुनता है, उसे हिम्मत भी देता है। तुम जल्द देखोगी कि तुम्हारा घर रोशनी से भर जाएगा।”

रुख़सती का منزر बेहद सादा और पाक था। सहाबियात साथ थीं, दुआएं दी जा रही थीं। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने घर में  उनका اِسْتِقْبَال किया और बेहद मोहब्बत से फरमाया: आयशा, अब ये घर तुम्हारा भी है।

बीबी आयशा शरमाते हुए बोलीं: या रसूलुल्लाह , मैं कोशिश करूंगी कि आपकी मोहब्बत और خِدْمت का حق अदा कर सकूं।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का घर दुनियावी ऐशओ आराम से خالی था। वहां न  فِزول का सामान था, न बड़ी दौलत। लेकिन वहां की हवा में मोहब्बत, रहमत और सुकून था।

एक روز बीबी आयशा ने हुज़ूर पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से मासूमियत से पूछा:

या रसूलुल्लाह , आपका बिस्तर इतना सादा क्यों है? क्यों न हम इसे आरामदायक बना दें?

हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मुस्कुराए और फरमाया: आयशा, मेरी आरामगाह तो آخِرَت है। ये दुनिया तो बस सफर का زریا है।

ये सुनकर बीबी आयशा की आँखों में عشق आ गए। उन्होंने कहा:या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, अब मैं भी आपके साथ इसी तरह ज़िंदगी गुज़रूंगी।

सहाबा जब बीबी आयशा को देखते तो कहते:

ये छोटी उम्र में भी इल्म और फहम में बड़ी हैं।

हज़रत उमर رزی اللہُ تالا عَنْهُ ने एक बार फरमाया:

हमें अपने मसाइल का हल अक्सर हज़रत आयशा के पास मिलता है।

इससे साबित हुआ कि उनकी शादी مہز घरेलू रिश्ता नहीं, बल्कि उम्मत के लिए इल्म का दरवाज़ा थी।

हिजरते मदीना सिर्फ़ इस्लाम का नया सफर नहीं था, बल्कि हज़रत आयशा رزی اللہُ تالا عَنْهَا की رُخْصَتِي का भी मौक़ा था।


चौथी शादी 


मदीना में मुसलमानों का नया घर बस चुका था। हिजरत के बाद ये शहर धीरे-धीरे इस्लाम की रोशनी से जगमगाने लगा था। मगर उस وقت समाज में कई मुश्किलात थीं। मुसलमान नए शहर में अम्न व अमान चाहते थे, वहीं उनके लिए ये भी ज़रूरी था के घरे نبوی में सुकून और इंतज़ाम قائم रहे। इसी सिलसिले में अल्लाह तआला ने हज़रत हफ्सा رزی اللہُ تالا عَنْهَا को نبی करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के घर लाने का हुक्म फरमाया।

हज़रत हफ्सा رزی اللہُ تالا عَنْهَا,  हज़रत उमर فاروق رزی اللہُ تالا عَنْهُ  की बेटी थीं। बचपन से ही बहुत समझदार और इल्म दोस्त थीं और अल्लाह तआला और रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से गहरी मोहब्बत रखती थीं।

रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब मदीना मुन्नव्वरा हिजरत करके आए तो वहां मुसलमानों की तादाद बढ़ रही थी लेकिन हालात बहुत मुश्किल थे। एक तरफ मक्का के मुशरिकीन से ख़तरा, दूसरी तरफ मदीना के यहूदी क़बीलों की साज़िशें, और तीसरी तरफ मुसलमानों की غُربت और तंगी। ऐसे माहौल में हर घराना कोशिश करता था के अपने बच्चों की ज़िंदगी और ईमान की हिफ़ाज़त करे।

हज़रत हफ्सा के पहले शौहर हज़रत ख़ुनैस बिन حزافا जंगे बद्र और जंगे उहद में शामिल रहे थे। जंगे उहद में زخمی होकर उनका इंतेक़ाल हो गया। हज़रत हफ्सा अब कम उम्र में ही बेवा हो गईं।जब हज़रत हफ्सा की इद्दत पूरी हो गई तो

हज़रत उमर अपनी बेटी के लिए कोई नेक और दीनी شخص तलाश करने लगे। पहले उन्होने हज़रत उस्मान से बात की, तो हज़रत उस्मान ने जवाब दिया, मैं इस बारे में सोचूंगा। फिर हज़रत ابو बकर से बात की तो उन्होंने ख़ामोशी اِختیار की، यानी कोई हां या ना में, जवाब न दिया। फिर रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनसे مُلاقات की और फरमाया: ऐ उमर, हफ्सा को मैं निकाह में लूंगा।

हज़रत उमर की आँखों से खुशी के आँसू निकल पड़े। दरअसल उस جَاهِل दौर में जब किसी औरत का शौहर,शादी के कुछ ही दिनों में اِنتقال कर जाता तो उस औरत को समाज मनहूस समझता था। हमारे نبی पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उसी जहालत को हज़रत हफ्सा के زریے हमेशा के लिए ختم किया।

इस तरह हज़रत हफ्सा رزی اللہُ تالا عَنْهَا का निकाह रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सन 3 हिजरी में हुआ।

उस وقت मदीना की ज़िंदगी बहुत सादा थी। मुसलमानों के घरों में अक्सर भूख और तंगी रहती। कभी कभी महीनों तक चूल्हा नहीं जलता और सिर्फ खजूर और पानी से गुज़ारा होता। मगर घरों में सब्र, शुक्र और अल्लाह पर तवक्कुल था।

मस्जिदे नबवी सिर्फ इबादत की जगह नहीं बल्कि मदरसा, अदालत और मुसलमानों की शूरा भी थी। रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का घर भी मस्जिद से लगा हुआ था, जिसमें उम्महातुल मोमिनीन रहतीं। हज़रत हफ्सा رزی اللہُ تالا عَنْهَا बहुत इबादतगुज़ार थीं। रातों को तहज्जुद पढ़तीं, कुरआन की तिलावत करतीं और रसूल अल्लाह की خِدمت करतीं।

एक बार उन्होंने रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पूछा: “या रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, कौन सा अमल अल्लाह के नज़दीक सबसे ज़्यादा प्यारा है? रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:

“वो अमल जो बराबर किया जाए, चाहे वो कम ही क्यों न हो।”इसलिए हज़रत हफ्सा رزی اللہُ تالا عَنْهَا हमेशा नमाज़ और روزے का एहतमाम करतीं।

हज़रत हफ्सा رزی اللہُ تالا عَنْهَا अपनी इबादत, इल्म और कुरआन से मोहब्बत की वजह से मशहूर हुईं। यहां तक कि बाद में जब हज़रत उस्मान رزی اللہُ تالا عَنْهُ ने कुरआन को एक मुसहफ में जमा किया तो हज़रत हफ्सा رزی اللہُ تالا عَنْهَا के पास मौजूद क़ुरआन के نُسخے से मदद ली गई।

उनका और रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का रिश्ता सिर्फ शादी का नहीं बल्कि उम्मत के लिए रहनुमाई और मिसाल का रिश्ता था। 

इस निकाह ने मुसलमानों को ये पैग़ाम दिया के किसी लड़की का शोहर वफात कर जाए तो ये उसकी कमी नहीं बल्कि अल्लाह का इम्तेहान है। और ऐसे हालात में उसकी इज़्ज़त और हिफ़ाज़त के लिए निकाह ही सबसे बेहतरीन रास्ता है।

रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का हज़रत हफ्सा رزی اللہُ تالا عَنْهَا  से निकाह इस्लामी समाज में औरत की قدر, उसकी इज़्ज़त और उसका مقام बयान करता है।


पांचवां निकाह


उस दौर में मदीना मुनव्वरा अभी-अभी इस्लाम की नई बुनियादों पर खड़ा हुआ था। मुसलमान हिजरत करके आए थे, उनके पास बहुत कम सामान था। भूख, तंगी और परेशानियां हर तरफ दिखाई देतीं। सहाबा किराम अपने पेट पर पत्थर बाँधकर गुज़ारा करते थे, लेकिन अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मोहब्बत में सब्र करते रहते।

इन्हीं दिनों मदीना की गलियों में एक خاتون ऐसी थीं, जिनका घर غریبوں, दुखियारों और मिस्कीनों का सहारा था। वो थीं ज़ैनब बिन्त خُزَيْمَہ رزی اللہُ تالا عَنْهَا। लोग उन्हें पहले ही “उम्मुल मसाकीन कहने लगे थे। उनके दरवाज़े पर कोई भूखा लौटता न था। कभी खजूर से पेट भरातीं, कभी जौ की रोटी बाँट देतीं, और अगर घर में कुछ न होता तो दिलासा और दुआ से ही किसी की आँखों के आँसू पोंछ देतीं।हज़रत ज़ैनब बिन्त خُزَيْمَہ رزی اللہُ تالا عَنْهَا एक बेवा थीं।उनके जंगे उहद में शहीद हुए थे। 

इस्लाम क़बूल करने के बाद उनका ये اِخلاق और भी रोशन हो गया। हर नमाज़ के बाद हाथ उठातीं और अल्लाह से दुआ करतीं: या अल्लाह, मुझे غریبوں का सहारा बना, मुझे यतीमों की मां बना।एक दिन हज़रत उमर فاروق رزی اللہُ تالا عَنْهُ  और कुछ सहाबा हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की خِدمت में हाज़िर हुए। उन्होंने कहा:

“या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, ज़ैनब बिन्त خُزَيْمَہ बेहद रहमदिल औरत हैं। उनकी ज़िंदगी غریبوں और यतीमों की خِدمت में गुज़री है। वो उम्मुल मोमिनीन बनने की हक़दार हैं।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ये सुनकर अपने सर को झुकाया और कुछ पल तस्बीह में مشغول रहे। फिर फरमाया:“ज़ैनब उम्मुल मसाकीन हैं। अल्लाह तआला को उनका ये اِخلاق पसंद है। अगर अल्लाह की مرزی हुई, तो ये निकाह बरकत और रहमत का सबब बनेगा।

निकाह का पैग़ाम ज़ैनब رزی اللہُ تالا عَنْهَا तक पहुँचाया गया। एक सहाबी ने कहा: ज़ैनब! रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आपके लिए निकाह का इरादा फरमाया है। ये आपके लिए दुनिया और آخرت की सबसे बड़ी इज़्ज़त होगी।

यह सुनकर ज़ैनब رزی اللہُ تالا عَنْهَا की आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने सिर झुकाकर कहा:

अगर ये अल्लाह और उसके रसूल की مرزی है, तो मैं رازی हूँ। मेरी ज़िंदगी पहले भी غریبوں की خِدمت में गुज़री है और अब उम्मुल मोमिनीन बनकर मैं इस काम को और बेहतर अंजाम दूँगी।

निकाह का दिन आया। मदीना की मस्जिद में सहाबा जमा हुए। न कोई बड़ी दावत थी, न कोई तामझाम। बस अल्लाह का नाम, تقوا की बरकत और मोहब्बत की हवा। सादगी से निकाह पढ़ाया गया।निकाह इंसान की ज़िंदगी का आधा ईमान पूरा कर देता है। ये रिश्ता सिर्फ मर्द और औरत का सहारा नहीं, बल्कि उम्मत के लिए रहमत और मोहब्बत का زریا है।



निकाह के बाद हज़रत ज़ैनब رزی اللہُ تالا عَنْهَا घरे نبوی में داخل हुईं। उनका दिल डर और खुशी दोनों से भरा हुआ था। उन्होंने हुज़ूर से पहली ही مُلاقات में कहा: या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, मैं चाहती हूँ कि इस घर में मेरी ज़िम्मेदारी वही हो जो मेरी ज़िंदगी का مقسد रहा है — غریبوں, यतीमों और मिस्कीनों की خِدمت।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुस्कुराते हुए फरमाया: ज़ैनब, ये घर उम्मत का घर है। अगर तुम इसमें غریبوں और यतीमों के लिए रहमत बनाओगी, तो अल्लाह तआला तुम्हें इस घर का नूर बना देगा। उम्मुल मोमिनीन बनने के बाद भी हज़रत ज़ैनब رزی اللہُ تالا عَنْهَا का अंदाज़ वही रहा। वो मस्ज़िदे नबवी के आंगन में बैठकर औरतों को दीन की बातें समझातीं, बच्चों को कुरआन सिखातीं और जो भी غریب आता उसे कुछ न कुछ देकर ही रवाना करतीं।

एक روز एक औरत आई और बोली:

अम्मा ज़ैनब, मेरे बच्चे कई दिनों से भूखे हैं।

ज़ैनब رزی اللہُ تالا عَنْهَا ने घर में तलाशा, तो सिर्फ थोड़ी सी जौ थी। उन्होंने वो सब उस औरत को दे दिया और خُد सिर्फ पानी पीकर सब्र कर लिया।

जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को यह मालूम हुआ तो आपने फरमाया:ज़ैनब उम्मुल मसाकीन हैं, और अल्लाह तआला उनके इस اِخلاق को बहुत पसंद करता है। कुछ ही महीनों बाद अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई और उनका اِنتقال हो गया।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनकी جنازے की नमाज़ خُد पढ़ाई और जन्नतुल بقی में उन्हें दफन किया। उस وقت आपकी आँखों में आँसू थे और आपने फरमाया:ज़ैनब की ज़िंदगी रहमत थी और उनका اِنتقال भी रहमत छोड़ गया। वो उम्मुल मसाकीन थीं और قیامت तक इसी नाम से याद की जाएँगी। हुज़ूर पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनसे निकाह इसलिए फरमाया जिससे उम्मत के लिए ये मिसाल قائم हो कि शहीदों की बीवियों और बेवाओं का सहारा बनना बहुत बड़ा अज्र और नेक काम है। और दूसरा की अपने लिए बीवी तलाश करते وقت सबसे पहले उसके दिल और اِخلاق को देखो — और अगर वो बेवा भी हो, तो ये समझो कि अल्लाह ने उसे इज़्ज़त بخشی है।

छठा निकाह


मदीना मुनव्वरा में उस وقت मुसलमान एक तरफ बाहरी दुश्मनों से जूझ रहे थे और दूसरी तरफ अपने घर बार और रिश्तों को संवार रहे थे। जंगे उहद ने बहुत से घरों को غمگین कर दिया था। कई सहाबा शहीद हुए, कई घरों के चिराग बुझ गए। उन्हीं घरों में से एक घर था ابو सलमा رزی اللہُ تالا عَنْهُ का।

ابو सलमा इस्लाम के पहले दौर के उन خُش قِسمت  लोगों में से थे, जिन्होंने बिना हिचकिचाए दीन को अपनाया और हर तकलीफ सह ली। जब जंगे उहद में वो زخمی हुए तो उनका जिस्म कमज़ोर होने लगा, और एक दिन उन्होंने अपनी अज़ीज़ बीवी उम्मे सलमा से कहा:“ऐ उम्मे सलमा! मैंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से एक दुआ सुनी है। जब भी किसी को मुसीबत आए तो उसे कहना चाहिए: ‘اِنَّا لِلّٰہِ وَ اِنَّا اِلَیۡہِ رٰجِعُوۡنَ۔ اَللّٰہُمَّ اَجِرۡنِیۡ فِیۡ مُصِیۡبَتِیۡ وَ اخۡلُفۡ لِیۡ خَیۡرًا مِّنۡہَا।हम अल्लाह ही के हैं और हमें उसी की ओर लौटकर जाना है।ऐ अल्लाह! मुझे मेरी इस मुसीबत में अज्र अता फरमा और मुझे इसकी जगह उससे बेहतर अता फरमा।

’ मैं भी यही दुआ करता हूँ। अगर मैं इस दुनिया से चला जाऊं,तो तुम अल्लाह से बेहतर बदले की उम्मीद रखना।”

उम्मे सलमा رزی اللہُ تالا عَنْهَا की आँखों से आँसू बहने लगे। उन्होंने कहा:“ابو सलमा! आपके जैसा शोहर कैसे कोई और हो सकता है? आप अल्लाह और उसके रसूल, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए जिए हैं, मैं तो आपके बाद किसी का خیال भी नहीं कर सकती।”

ابو सलमा ने मुस्कुराकर कहा:अल्लाह तुम्हारे लिए बेहतर दरवाज़े खोलेगा। बस सब्र करना।”

कुछ ही وقت बाद अबू सलमा शहीद हो गए और उम्मे सलमा चार छोटे बच्चों के साथ अकेली रह गईं।उम्मे सलमा का दिल टूटा हुआ था। वो हर दिन बच्चों को संभालतीं और रात को अबू सलमा की याद में रोतीं। 


सहाबा उनके घर आते और तसल्ली देते, मगर एक मां और बेवा के غم को कौन बांट सकता था?एक روز हज़रत उमर رزی اللہُ تالا عَنْهُ आए और कहा:“ऐ उम्मे सलमा! आप बहुत नेक औरत हैं। आप बच्चों को संभाल रही हैं, दीन पर क़ायम हैं। क्यों न आप फिर से निकाह कर लें ताकि आपका सहारा हो?उम्मे सलमा ने रोते हुए कहा:मुझे डर है कि कोई मर्द मेरे चार बच्चों का बोझ कैसे उठाएगा? कौन मेरे غم को समझेगा?जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को उनकी तन्हाई और बच्चों के बारे में मालूम हुआ, तो आपने निकाह का इरादा फरमाया। हुज़ूर ने एक सहाबी को भेजकर कहा:उम्मे सलमा से कहो कि अल्लाह के रसूल ने उनके लिए निकाह का पैग़ाम भेजा है।”पैग़ाम जब उम्मे सलमा तक पहुँचा, तो वो ताज्जुब और غم में डूब गईं। उन्होंने कहा:मैं एक बूढ़ी औरत हूँ, غمگین हूँ और मेरे कई बच्चे हैं। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जैसी شخسیت मेरे जैसे हालात को कैसे قُبول करेगी?

पैग़ाम लाने वाले सहाबी ने मुस्कुराकर कहा:

उम्मे सलमा! रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आपको आपके हालात के साथ ही قُبول किया है। यही तो रहमत है। जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनकी हर बात सुनी और जवाब दिया: तुम बूढ़ी नहीं हो, बल्कि अल्लाह ने तुम्हें इज़्ज़त بخشی है। तुम्हारे बच्चे मेरे बच्चे होंगे। तुम्हारा غم मेरा غم होगा। उम्मे सलमा, तुम्हारे घर में रहमत होगी और सब्र की मिसाल होगी।


ये सुनकर उम्मे सलमा का दिल पिघल गया। उन्होंने कहा:“अगर ये अल्लाह और उसके रसूल की مرزی है, तो मैं رازی हूँ।

निकाह मदीना मुनव्वरा में सादगी से हुआ। कोई तामझाम नहीं, बस अल्लाह का नाम और कुछ गवाह। सहाबा खुश हुए कि उम्मुल मोमिनीन का एक और दरवाज़ा खुला।

जब उम्मे सलमा घरे نبوی में داخل हुईं, तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बच्चों को अपने हाथों से सहलाया और फरमाया:“ये मेरे भी बच्चे हैं।

बच्चों की आँखों में खुशी और इत्मीनान आ गया। उम्मे सलमा ने आँसू रोकते हुए कहा: या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, आपने मेरे बच्चों को सहारा दिया, अब मेरा दिल मुतमईन हो गया।”

बीबी उम्मे सलमा की समझदारी का सबसे मशहूर वाक़िआ सुल्ह हुदैबिया के मौके पर पेश आया।साल 6 हिजरी की बात है।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ख़्वाब में देखा कि आप और आपके साथी अमन के साथ उमरा कर रहे हैं।

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबा से कहा: हम उमरा के लिए चलेंगे, जंग का इरादा नहीं है।”करीब चौदह सौ सहाबा साथ निकले। सबने सिर्फ उमरा की नीयत से सफर शुरू किया, हथियार भी सिर्फ सफरी तलवारें थीं।जब क़ुरैश को खबर हुई तो उन्होंने कहा:“मुहम्मद और उनके साथी मक्का में داخل नहीं होंगे। उन्होंने अपने लोगों को रास्ते में रोकने के लिए भेज दिया।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और सहाबा हुदैबिया नामी जगह पर रुक गए, ये जगह मक्का से बाहर है।दोनों तरफ से सफीर भेजे गए। آخرکار तय हुआ कि एक समझौता यानी सुल्ह लिखी जाएगी।क़ुरैश ने कुछ शर्तें रखीं:

इस साल मुसलमान उमरा किए बिना वापस लौटेंगे।

अगले साल उमरा कर सकेंगे, मगर सिर्फ 3 दिन मक्का में ठहरेंगे।हथियार सिर्फ सफरी तलवारें होंगी।

अगर मक्का का कोई شخص मुसलमान होकर मदीना भाग आया, तो उसे वापस करना होगा।

अगर कोई मुसलमान छोड़कर क़ुरैश में शामिल हो जाए, तो उसे वापस नहीं किया जाएगा।

अरब के क़बीलों को حق होगा कि वो चाहे मुसलमानों से जुड़ें या क़ुरैश से।



रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत अली से फरमाया कि लिखो:

“बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम।”

قُرَیۡش के लोग बोले: “हम ‘रहमान रहीम’ को नहीं मानते, लिखो: ‘बिस्मिकल्लाहुम्मा’।”

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कहा: “ठीक है, वही लिख दो।”

फिर हज़रत अली ने लिखा: “मुहम्मद रसूलुल्लाह।”

قُرَیۡش बोले: “अगर हम आपको रसूल मानते तो झगड़ा ही न होता। लिखो: ‘मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह’।”

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: “ठीक है, मिटा दो।”

हज़रत अली ने कहा: “मैं अपने हाथ से ‘रसूलुल्लाह’ का नाम मुबारक नहीं मिटा सकता।

सहाबा को ये शर्तें बहुत سخت लगीं।

हज़रत उमर ने आकर कहा:

“या रसूलल्लाह, क्या हम حق पर नहीं? और वो बातिल पर नहीं? फिर हम क्यों नीचा समझौता करें?” आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:

“मैं अल्लाह का रसूल हूँ। मैं उसका हुक्म नहीं तोड़ सकता। वो मेरा मददगार है।

समझौते के बाद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबा से कहा:

“अपने قُربانی के जानवर زبہ करो और इहराम खोल दो।”

सहाबा की हालत उदासी की वजह से ऐसी थी कि कोई उठ नहीं रहा था।

उम्मुल मोमिनीन हज़रत उम्मे सलमा ने मशवरा दिया: या रसूलल्लाह, आप خُد قُربانی करें और सर मुंडवाएं। सहाबा अपने आप आपके पीछे कर लेंगे।”

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने वैसा ही किया।

सहाबा ने ये देखकर، सब ने قُربانی की और इहराम खोल दिए।सहाबा को ये सुल्ह बहुत भारी लगी थी।

मगर अल्लाह ने इसी मौके पर सूरह फतह نازل की, और अल्लाह ने तुम्हें यक़ीनन एक खुली फतह अता की है।

इस सुल्ह के बाद दो साल का अमन मिला, जिसमें इस्लाम तेज़ी से फैला।

फिर जब قُرَیۡش ने समझौता तोड़ा, तो उसी का नतीजा फतह मक्का यानी मक्का की फतह बना।

नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उम्मत को ये पैग़ाम दिया कि، बच्चे अल्लाह की रहमत हैं, बोझ नहीं । हुज़ूर ने फरमाया: निकाह रहमत है। जो किसी बेवा और बच्चों वाली औरत से निकाह करता है, अल्लाह उसके हर قدم को अज्र में बदल देता है।

सातवां निकाह


मदीना मुनव्वरा उस दौर में इस्लाम की नई तालीमात से चमक रहा था। मुसलमान रोज़ाना नई नई आज़माइशों और रहमतों का सामना कर रहे थे। मस्जिदे नबवी इल्म और नूर का مرکز बनी हुई थी, मगर साथ ही यहूद और منافقین भी अंदरूनी साज़िशों में लगे हुए थे। ऐसे وقت में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का हर अमल, हर फैसला उम्मत के लिए तालीम और मिसाल होता था।हज़रत ज़ैनब رزی اللہُ تالا عَنْهَا क़ुरैश के नामवर خاندان से ताल्लुक़ रखती थीं। उनका असली नाम बर्रा था, लेकिन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन्हें “ज़ैनब” नाम दिया। वो हज़रत उम्मे हकीम बिन्त अब्दुल मुत्तलिब की बेटी थीं, यानी रसूलुल्लाह की चचेरी बहन।

वो बचपन से ही दीनी, पाक दामन और अल्लाह से डरने वाली थीं। उनका दिल हमेशा नमाज़ और तिलावत की तरफ लगा रहता था।

ज़ैनब رزی اللہُ تالا عَنْهَا تلاق के बाद इद्दत में थीं। इसी दौरान अल्लाह तआला की तरफ से हुक्म नाज़िल हुआ कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का उनसे निकाह कर दिया जाए। ये निकाह कोई आम निकाह नहीं था, बल्कि इसमें बहुत बड़ी हिकमत छुपी थी।

निकाह का पैग़ाम जब हज़रत ज़ैनब तक पहुँचा, तो वो हैरान रह गईं। उन्होंने अदब से पूछा:

या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, मैं आपकी चचेरी बहन हूं। अल्लाह का हुक्म हो तो मैं कैसे इंकार कर सकती हूं। लेकिन मैं चाहती हूँ कि ये निकाह साफ साफ अल्लाह के हुक्म से हो, ताकि लोग समझ जाएं कि यह कोई نفسانی इरादा नहीं बल्कि इलाही हुक्म है।


रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुस्कुराकर जवाब दिया:ज़ैनब! ये निकाह तुम्हारा और मेरा नहीं, बल्कि अल्लाह का तय किया हुआ है।निकाह की خبر पूरे मदीना में फैल गई। मुसलमान خُشی हुए कि अल्लाह तआला ने सीधे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का निकाह फरमाया है। ये पहला निकाह था जो आसमान से तय हुआ।निकाह के दिन एक वलीमा भी हुआ, जिसमें सहाबा को दावत दी गई। हज़रत अनस رزی اللہُ تالا عَنْهُ रिवायत करते हैं कि ये रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का सबसे बड़ा वलीमा था। इसमें गोश्त और रोटी परोसी गई और सहाबा ने बरकत से खाया।इस निकाह के साथ एक और बड़ा वाक़िआ हुआ। 

जब सहाबा खाने के बाद बैठे बातें करने लगे तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को तकलीफ हुई कि वो देर तक बैठे रहे। उसी وقت अल्लाह तआला ने आयते हिजाब नाज़िल फरमाई:

يٰٓاَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَدۡخُلُوا بُيُوتَ النَّبِيِّ اِلَّآ اَنۡ يُؤۡذَنَ لَكُمۡ اِلٰى طَعَامٍ غَيۡرَ نَاظِرِينَ اِنٰىهُ...

سورہ अहज़ाब آیت  तिरपन 


यानि “ऐ ईमान वालों! نبی के घरों में बग़ैर इजाज़त داخل मत हो और जब खाना खा लो तो न बैठो बातें करने, बल्कि निकल जाओ।”

इसी दिन से हिजाब का हुक्म और उम्मुल मोमिनीन की पर्दा दारी का निज़ाम शुरू हुआ।

जब ज़ैनब رزی اللہُ تالا عَنْهَا घरे نبوی में داخل हुईं तो उन्होंने कहा: या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, मैं अल्लाह का शुक्र अदा करती हूँ कि उसने मुझे उम्मुल मोमिनीन बनाया और मेरे निकाह को आसमान से तय किया।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जवाब दिया:“ज़ैनब, तुम्हारा घर सब्र और शुक्र की मिसाल बनेगा। और अल्लाह तुम्हारे इस مقام को قیامت तक के लिए बुलंद करेगा।हज़रत ज़ैनब बिन्त जह्श رزی اللہُ تالا عَنْهَا का निकाह ये सिखाता है कि: इस्लाम ने नसब और झूठी रस्मों को तोड़ दिया।सगी बहनों के अलावा किसी से भी निकाह جائز है, تلاق शुदा औरत को दोबारा निकाह करने की इजाज़त दी गई।औरत की इज़्ज़त उसके ईमान और اِخلاق से है, न कि उसके पिछले रिश्तों से।


आठवां निकाह

मदीना मुनव्वरा में इस्लाम की طاقت बढ़ रही थी। आस-पास के क़बीलों में भी इस्लाम की दावत जा रही थी। मगर कुछ क़बीले ऐसे थे जो مُنافقین और यहूदियों की تحریقات में आकर मुसलमानों से जंग करने की तैयारी करने लगे। उनमें से एक था क़बीला बनू मुस्तलिक, जिसका सरदार था हारिस बिन अबी दरार।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को خبر मिली कि ये क़बीला मुसलमानों पर हमला करने की तैयारी कर रहा है। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबाए किराम को साथ लिया और बनू मुस्तलिक से जंग हुई। अल्लाह की मदद से मुसलमान غالب आए, और दुश्मनों के कई लोग क़ैदी बने। इन्हीं क़ैदियों में क़बीले के सरदार की बेटी, जुवैरिया बिन्त हारिस, भी थीं।

जुवैरिया एक हसीन, पाक-दामन और समझदार औरत थीं। जब वो क़ैद में आईं, तो उनकी شخصیت देखकर हर कोई कहता था:

ये औरत किसी घर में हो, तो घर में नूर आ जाए।

जुवैरिया رزی اللہُ تالا عَنْهَا ने अपना مُقَدَّر देखकर सोचा कि अगर वो किसी मुसलमान के घर غُلامی में रहेंगी, तो ये उनके क़बीले और उनके लिए बहुत शर्म की बात होगी।

उन्होंने फैसला किया कि सीधे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास जाएं और अपनी रिहाई की گُزارش करें।

एक दिन वो हया और अदब के साथ हुज़ूर की खिदमत में हाज़िर हुईं और अर्ज़ किया, या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम! मैं हारिस बिन अबी दरार की बेटी हूं। मेरा हाल आप जानते हैं। मैं चाहती हूँ कि आप मेरी मदद करें और मुझे آزاد कर दें।”


रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बहुत नरमी से जवाब दिया:जुवैरिया! अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें  فِدیہ देकर آزاد कर दूं। लेकिन अगर तुम चाहो, तो मैं तुम्हें निकाह में ले लूं, और तुम उम्मुल मोमिनीन बन जाओ।”

हज़रत जुवैरिया ने सर झुका लिया और आँसुओं के साथ कहा: या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम! अल्लाह ने मुझे आपके दर पर पहुँचाया है। अगर आप मुझे निकाह में ले लें, तो ये मेरे लिए सबसे बड़ी रहमत होगी।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबा को बुलाया और फरमाया: आज अल्लाह तआला ने तुम्हारी बहन जुवैरिया को तुम्हारी मां बना दिया है। उनका निकाह मेरे साथ हो गया है।”

ये خبر सुनकर सहाबा को इतनी خُوشی हुई कि उन्होंने कहा: अगर अब जुवैरिया उम्मुल मोमिनीन हैं, तो हम उनके पूरे क़बीले को भी छोड़ देते हैं।

इतना सुनते ही सैकड़ों कै़दी, जो बनू मुस्तलिक से थे, آزاد कर दिए गए।

हज़रत आयशा رزی اللہُ تالا عَنْهَا خُد बयान करती हैं:“मैंने जुवैरिया जैसी خاتون किसी को नहीं देखा। उनके निकाह की वजह से उनके पूरे क़बीले को آزادی मिली। उनके लिए ये सबसे बड़ी बरकत थी।


रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक روز सुबह उनके पास से गुज़रे और देखा, कि वो रात से बैठे زِكْر कर रही हैं। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पूछा:जुवैरिया! तुम कब से बैठी हो?

उन्होंने कहा: या रसूलुल्लाह! फज्र से अब तक।”रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:क्या मैं तुम्हें ऐसे कलिमात न सिखाऊं जो तुम्हारे इन सब، ازकार से बेहतर हैं? कहो: سُبْحَانَ اللَّهِ وَبِحَمْدِهِ، عَدَدَ خَلْقِهِ، وَرِضَا نَفْسِهِ، وَزِنَةَ عَرْشِهِ، وَمِدَادَ كَلِمَاتِهِ।

हज़रत जुवैरिया رزی اللہُ تالا عَنْهَا  के निकाह से ये बातें सामने आईं: इस्लाम ने غُلامی की ज़ंजीरों को तोड़ा और इंसानों को बराबरी का दर्जा दिया निकाह सिर्फ दो شخص का नहीं, बल्कि पूरे समाज पर असर डाल सकता है।औरत की इज़्ज़त उसके ईमान और اِخلاق से है, न कि उसकी पिछली हालत से।

हज़रत जुवैरिया رزی اللہُ تالا عَنْهَا  का निकाह उम्मुल मोमिनीन बनने का زریا बना, और उनके वसीले से उनका पूरा क़बीला मुसलमानों का दोस्त बन गया। वो अपनी ज़िंदगी زِكْر, इबादत और उम्मत की خِدمت में गुज़ार गईं।रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनके बारे में फरमाया: जुवैरिया बरकत वाली औरत हैं। उनके निकाह ने सैकड़ों غُلاموں को आज़ादी दिलाई।

नौवां निकाह

मक्का का दौर बेहद कठिन था। मुसलमानों पर काफिरों का زُلۡم बढ़ता जा रहा था। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने सहाबा को हबशा यानी अबिसीनिया की तरफ हिजरत की इजाज़त दी ताकि वो वहां ईसाई बादशाह नजाशी के इन्साफ और रहमत तले सलामत रह सकें। हिजरत करने वालों में एक خاتون  — रमला बिन्त अबू सुफयान भी थीं, जिन्हें बाद में उम्मे हबीबा رزی اللہُ تالا عَنْهَا कहा गया। उनके वालिद अबू सूफयान उस وقت कुरैश के सबसे बड़े सरदार और इस्लाम के सबसे سخت दुश्मनों में से थे। लेकिन उम्मे हबीबा رزی اللہُ تالا عَنْهَا शुरू से ही सच्चाई को पहचान गईं और इस्लाम قُبول कर लिया।

उन्होंने मक्का की سختیوں और كُفَّار के तानों को सब्र से सहा। फिर जब मुसलमानों पर زُلۡم बढ़ा, तो उन्होंने अपने शौहर उबैदुल्लाह बिन जह्श के साथ हब्शा यानी इथियोपिया की तरफ हिजरत की।

हब्शा पहुँचे तो शुरू में दोनों बड़े इत्मिनान से रहे। वहां ईसाई बादशाह नजाशी मुसलमानों का बहुत خیال रखता था। लेकिन कुछ ही وقت बाद उनके शौहर उबैदुल्लाह ईमान से फिर गए और नसरानी हो गए। हज़रत उम्मे हबीबा के लिए ये बहुत बड़ा सदमा था।


एक रात का वाक़िआ है। हज़रत उम्मे हबीबा अपने घर में अकेली बैठी थीं। उनके शौहर शराब पीकर लौटे और कहा:

“रमला! मैंने इस्लाम छोड़ दिया है, तुम भी छोड़ दो और मेरी तरह ईसाई बन जाओ।”

उम्मे हबीबा का चेहरा سخت हो गया। उन्होंने पूरे یقین से कहा:

“क़सम है अल्लाह की, जिसने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को सच्चा نبی बनाकर भेजा है, मैं अपना ईमान कभी नहीं छोड़ूँगी। तुम चाहो तो दुनिया की हर राह ले लो, लेकिन मैं अल्लाह और उसके रसूल के साथ हूँ।ये الفاز उनकी मज़बूत ईमान की गवाही थे। शौहर शराब और कुफ्र में डूब गया और कुछ ही अरसे बाद मर गया।

वो तन्हा रह गईं, मगर अल्लाह से जुड़ी रहीं। नमाज़ और दुआ में लगी रहतीं। 

लोग पूछते:

रमला! तुम अब क्या करोगी?”

वो जवाब देतीं: अल्लाह मेरे लिए काफी है। वो मुझे कभी तन्हा नहीं छोड़ेगा।इन्हीं दिनों उनका सब्र रंग लाया। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनकी हालत सुनी तो उन्हें राहत देने का इरादा किया। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने नजाशी को पैग़ाम भेजा कि वो उम्मे हबीबा से मेरा निकाह कराए।फिर नजाशी ने उन्हें बुलवाया और कहा:“रमला! तुम्हारे लिए  خُش خبری है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तुम्हे निकाह के लिए चुना है।


हज़रत उम्मे हबीबा की आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने कहा: ये अल्लाह की सबसे बड़ी रहमत है। मैं अल्लाह और उसके रसूल की مرزی पर رازی हूँ।

नजाशी ने बहुत خُشی से निकाह कराया। उन्होंने सहाबा को जमा किया और कहा:

“रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उम्मे हबीबा का निकाह का पैग़ाम भेजा है। मैं उनकी तरफ से वली बनकर ये निकाह अंजाम देता हूँ।निकाह हब्शा में ही हुआ।महर चार सौ दिरहम तय हुआ।

 नजाशी ने خُد इस निकाह की महफिल में खाना खिलाया और कहा:

قسم है उस अल्लाह की, जो حق है, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सच्चे نبی हैं और रमला का निकाह उनके साथ होना उनके लिए सबसे बड़ी इज़्ज़त है।निकाह के बाद उम्मे हबीबा मदीना आईं।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:“उम्मे हबीबा सब्र करने वाली औरत हैं। अल्लाह ने उनके सब्र का सिला उन्हें उम्मुल मोमिनीन बना कर दिया।

एक روز उनके वालिद अबू सुफयान जो उस وقت तक मुसलमान नहीं हुए थे मदीना आए। वो उम्मे हबीबा के कमरे में داخل हुए और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बिस्तर पर बैठने लगे।उम्मे हबीबा ने फौरन बिस्तर समेट लिया और कहा:आप इस बिस्तर पर नहीं बैठ सकते। ये अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का बिस्तर है, और आप अभी तक कुफ्र की हालत में हैं।अबू सुफयान ने हैरानी से कहा: “बेटी! क्या तुम मुझे अपने बिस्तर पर भी नहीं बैठने दोगी?”

उन्होंने जवाब दिया: अब्बा जान! आप मेरे वालिद हैं, मगर ईमान और कुफ्र कभी बराबर नहीं हो सकते।ये सुनकर अबू सुफयान खामोश हो गए। और इसी वाक़िआ के कुछ وقت बाद अल्लाह ने उन्हें भी इस्लाम की हिदायत दी।

हज़रत उम्मे हबीबा बड़ी इबादतगुज़ार, سخاوت करने वाली और सब्र करने वाली थीं। उनकी सबसे मशहूर हदीस ये है कि उन्होंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सुना: जो मुसलमान दिन-रात में बारह रकअत نفل पढ़े, अल्लाह उसके लिए जन्नत में एक घर बना देता है।

(रिवायत: मुस्लिम)

हज़रत उम्मे हबीबा رزی اللہُ تالا عَنْهَا का निकाह सिर्फ उनका इम्तिहान न था, बल्कि ये इस्लाम का غلبہ और अल्लाह की हिकमत की निशानी था। वो सरदार की बेटी थीं, मगर ईमान की राह में हर तकलीफ सही। उनका निकाह ये पैग़ाम देता है कि ईमान की तकलीफ सहने वाले लोगों के साथ अल्लाह बेहतर नहीं बेहतरीन करता है।और तुम ऐसी औरत को निकाह के लिए चुनो जो सच्चे ईमान वाली हो


दसवां निकाह

उस وقت मदीना मुनव्वरा चारों तरफ से दुश्मनों की साज़िशों का सामना कर रहा था। यहूदी क़बीलों ने बार-बार मुसलमानों को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश की थी। बनू नज़ीर, बनू کورائزا और फिर خَيْبَر के यहूदी قبیلوں ने मिलकर इस्लाम की बढ़ती हुई रौशनी को बुझाने की साज़िशें कीं। उनके पास दौलत और मज़बूत قِلْے थे, जबकि मुसलमानों के पास सिर्फ अल्लाह का भरोसा और ईमान की طاقت थी। ऐसे हालात में نبی अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबा को तैयार किया और غَزْوَہ خَيْبَر की तरफ कूच किया।

लड़ाई के बाद अल्लाह ने मुसलमानों को फतह अता की। इसी दौरान एक خاتون قیدیوں में थीं — सफिया बिन्त हुयै رزی اللہُ تالا عَنْهَا। वो यहूदियों के सरदार हुयै बिन اختب की बेटी थीं। जब उन्हें نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सामने लाया गया तो आप ने रहमत से देखा।हुज़ूर ने नर्मी से पूछा:तुम्हारा नाम क्या है? हज़रत सफिया ने जवाब दिया: मेरा नाम सफिया है, मैं हुयै बिन اختب की बेटी हूँ।आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: मैं तुम्हें दो रास्ते पेश करता हूँ। अगर चाहो तो अपने قبیلے में लौट जाओ, और अगर चाहो तो इस्लाम قُبول करके मेरी बीवी बनो। फैसला तुम्हारा है।

सफिया की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा:या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, मैं उस क़ौम में क्यों लौटूँ जो आपके خلاف दुश्मनी पर अड़ी रही? मैंने आपके  اِخلاق और रहमत को देखा है। मैं इस्लाम قُبول करती हूँ और आपकी उम्मुल मोमिनीन बनना चाहती हूँ।ये सुनकर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मुस्कुराए और फरमाया: आज से तुम آزاد हो, और तुम्हारी آزادی ही तुम्हारा महर है।

सहाबा के बीच خُشی की लहर दौड़ गई औरअल्लाहु अकबर” की सदाएं गूँज उठीं।

निकाह के बाद जब हज़रत सफिया رزی اللہُ تالا عَنْهَا نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ मदीना लौट रही थीं, तो रास्ते में एक वाक़िआ पेश आया। हज़रत सफिया ने देखा कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम थके हुए हैं। उन्होंने फौरन अपनी चादर ज़मीन पर बिछा दी और कहा: या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, इस पर आराम से बैठ जाइए। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनकी मोहब्बत देखकर मुस्कुराकर कहा:

सफिया, अल्लाह तआला तुम्हें इस मोहब्बत का बेहतर बदला देगा।एक बार की बात है कुछ औरतों ने हज़रत सफिया رزی اللہُ تالا عَنْهَا को ताना दिया: कि तुम यहूदी की बेटी हो।

ये सुनकर सफिया रो पड़ीं और नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आकर शिकायत की। आपने उनके आँसू पोंछे और फरमाया: सफिया, क्यों غم करती हो? तुम نبی हारून की औलाद हो, तुम्हारे चचा नबी मूसा थे, और अब तुम मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बीवी हो। तुम्हारा مقام बहुत बुलंद है। ये सुनकर हज़रत सफिया के चेहरे पर रौनक आ गई और वो और भी मज़बूती से इस्लाम पर डट गईं।

हज़रत सफिया رزی اللہُ تالا عَنْهَا अक्सर कहा करतीं: मुझे इस्लाम और نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की रहनुमाई ने वो सुकून दिया जो मुझे अपने बड़े घराने में भी न मिला।

उनका निकाह सिर्फ मोहब्बत और रहमत का पैग़ाम नहीं था बल्कि ये भी बताता है कि نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम  ने रिश्तों को हमेशा तक़वा और ईमान की बुनियाद पर चुना, न कि दौलत या नसब पर। इस तरह दसवां निकाह — हज़रत सफिया رزی اللہُ تالا عَنْهَا से — इस्लाम की تاریخ में रहमत और इंसाफ का एक और नूर बन गया।

ग्यारहवां निकाह 


उस दौर में मुसलमानों के हालात बहुत बदल चुके थे। सुलहए हुदैबिया के बाद मुसलमान और कुरैश के बीच آرزی यानी कुछ وقت के लिए अमन का दौर था। मुसलमान अब खुलकर इबादत कर सकते थे और उन्हें अगले साल उमरा करने की इजाज़त भी मिल चुकी थी। सन 7 हिजरी में  نبی अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम दो हज़ार सहाबा के साथ उमरा ए قزاء  के लिए मक्का शरीफ की तरफ रवाना हुए। ये सफर सिर्फ उमरा की अदायगी के लिए नहीं था बल्कि क़ुरैश के दिलों को इस्लाम की तरफ मोड़ने का भी زریا साबित हुआ।

मक्का के लोग हैरत से देखते थे कि जिन मुसलमानों को कभी بے قدری और मज़लूमियत का सामना करना पड़ा था, वही आज अल्लाह की रहमत और हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की रहनुमाई में इज़्ज़त और طاقت के साथ आए हैं। इन्हीं हालात में एक ऐसी नेक और पाक दामन خاتون नज़र आईं जिनकी तलब हमेशा से यही थी कि उनकी ज़िंदगी آخرت की कामयाबी के लिए सवाब का زریا बने। वो थीं हज़रत मैमूना बिन्त हारिस رزی اللہُ تالا عَنْهَا 

हज़रत मैमूना رزی اللہُ تالا عَنْهَا  कुरैश के مُازَّزَہ خاندَان से تَالُّق रखती थीं। उनकी बहन उम्मुल فَزل, हज़रत अब्बास رزی اللہُ تالا عَنْهُ जो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के चाचा थे, उनकी बीवी थीं और दूसरी बहन आसमा बिन्त उमैस सहाबियों में मशहूर थीं। خُد मैमूना رزی اللہُ تالا عَنْهَا  बेहद रहमदिल, इबादतगुज़ार और गरीबों की मददगार थीं। वो बेवा थीं, मगर उनका दिल हमेशा इस्लाम और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तरफ झुका हुआ था।

हज़रत मैमूना अक्सर अपनी बहन से कहतीं: उम्मुल فَزل! मेरा दिल चाहता है कि मेरी ज़िंदगी का آخری पड़ाव रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की خِدمت और मोहब्बत में गुज़रे।

जब हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उमरा के लिए मक्का पहुँचे, तो आपके चाचा हज़रत अब्बास ने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से ارز किया: “या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, मेरी साली मैमूना बेवा हैं। वो नेक और पाक दिल वाली औरत हैं। अगर आप चाहें तो उनसे निकाह हो सकता है।”

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुस्कुराकर फरमाया: अगर अल्लाह की مرزی हुई तो ये निकाह रहमत का सबब बनेगा। मैमूना सच्चे दिल और सच्चे इरादे वाली औरत हैं।”

हज़रत अब्बास ने ये पैग़ाम मैमूना رزی اللہُ تالا عَنْهَا  तक पहुँचाया।

“मैमूना! रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तुम्हारे लिए निकाह का इरादा किया है। ये तुम्हारे लिए दुनिया और آخرت की सबसे बड़ी इज़्ज़त होगी।”

ये सुनकर मैमूना رزی اللہُ تالا عَنْهَا  की आँखों में खुशी के आँसू आ गए। उन्होंने सिर झुका कर कहा:

अगर ये अल्लाह और उसके रसूल की मरज़ी है, तो मैं رازی हूँ। मेरी آرزُو तो यही थी कि मेरी ज़िंदगी उम्मुल मोमिनीन बनकर गुज़रे।

निकाह सादगी और तक़वा की मिसाल था। जगह थी सर्फ जो मक्का और मदीना के दरमियान पड़ता है। निकाह की रस्म हज़रत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने अंजाम दी और महर 400 दिरहम तय किया गया। हुज़ूर ने वहां मौजूद सहाबा से फरमाया:निकाह अल्लाह की रहमत है। ये रिश्ते उम्मत के लिए बरकत और मोहब्बत लाते हैं। मैमूना इस घर की زینت और उम्मत के लिए रहमत होंगी।



मैमूना رزی اللہُ تالا عَنْهَا  ने उस وقت कहा:

या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, मैं चाहती हूँ कि अपनी ज़िंदगी आपके साथ गुजारूं और آخرت में आपके قدموں के साथ उठूँ।

सहाबा ने ‘अल्लाहु अकबर’ कहा और इस निकाह को रहमत और सुकून का सबब माना।

इस निकाह का असर मक्का के लोगों पर भी पड़ा। बहुत से कुरैशियों ने कहा: मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हमारे خاندان से रिश्ता जोड़ा है। अब वो सिर्फ बाहर से आए दुश्मन नहीं, बल्कि हमारे अपने घर के दामाद भी हैं।

ये निकाह कुरैश और मुसलमानों के रिश्तों में नरमी और मोहब्बत का पैग़ाम लेकर आया।

एक روز किसी ने हज़रत मैमूना से कहा: क्या तुम्हें लगता है कि ये निकाह सियासी वजहों से हुआ?”

उन्होंने जवाब दिया:नहीं! ये निकाह अल्लाह की किताब और उसके रसूल की सुन्नत के मुताबिक हुआ है। अगर मेरे लिए कोई इज़्ज़त है, तो वो यही है कि मैं उम्मुल मोमिनीन कहलाऊं।

हज़रत मैमूना رزی اللہُ تالا عَنْهَا  ने बाकी ज़िंदगी इबादत, तालीम और गरीबों की मदद में गुज़ारी। औरतों को कुरआन और सुन्नत सिखातीं और अक्सर फरमातीं: असली इज़्ज़त इस बात में है कि औरत दीनी हो और अपने शौहर की मददगार बने।

उनका इंतिक़ाल भी उसी जगह सर्फ में हुआ जहां निकाह हुआ था। सहाबा कहते थे कि ये अल्लाह की قُدرت है कि उनकी قَبْر उसी जगह बनी जहां उनका निकाह हुआ था।

इस तरह ग्यारहवां निकाह نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का हज़रत मैमूना बिन्त हारिस رزی اللہُ تالا عَنْهَا से हुआ। यह निकाह सिर्फ दो इंसानों का मिलन नहीं, बल्कि इस्लाम और कुरैश के تَالُّقَات में मोहब्बत और बरकत का नया سفا भी था।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पूरी ज़िंदगी उम्मत के लिए मिसाल है। आपने जितने भी निकाह किए, वो किसी दुनियावी हसरत या ख्वाहिश के लिए नहीं थे, बल्कि उम्मत को पैग़ाम देने के लिए थे। कभी यतीम और मिस्कीनों की तसल्ली के लिए, कभी रिश्तों को जोड़ने के लिए, और कभी औरतों की इज़्ज़त और मक़ाम को बुलंद करने के लिए।

हमारे प्यारे نبی मुहम्मद  सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने किसी भी उम्मुल मोमिनीन को طلاق नहीं दी, बल्कि हर एक को बराबरी का حق दिया, उनके साथ अदल और इनसाफ से पेश आए। ये उम्मत के लिए सबसे बड़ा सबक़ है कि निकाह रहमत है, मोहब्बत है, और ज़िम्मेदारी है।

अल्लाह पाक हमें अपने प्यारे نبی सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के سدقے ऐसे रिश्ते अता फरमाए जो नेक हों, रहमत का सबब हों और इज़्ज़त और सुकून से भरपूर हों।

आमीन या रब्बुल आलमीन।



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Syed Ali Hassan Rizvi 


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